श्रीमद्भगवद्गीता >> श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2

महर्षि वेदव्यास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 6
आईएसबीएन :

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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।

Gita Chapter 2

अथ द्वितीयोऽध्याय


सञ्जय उवाच


तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन:।।1।।


संजय बोले - उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आंसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रोंवाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान् मधुसूदन ने यह वचन कहा।।1।।

युद्ध में होने वाले विनाश और नरसंहार तथा उसकी निरर्थकता के संबंध में सोचते हुए अर्जुन अकस्मात् कृपा के आवेश में अथवा करुणा से भर गया है। संजय कहते हैं इस प्रकार अश्रुपूरित नेत्रों से और परिस्थिति के प्रति कृपा अर्थात् करुणा के आवेश में आने के कारण महारथी, शक्तिशाली और सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर और नाना प्रकार की साधनाओं से दिव्यास्त्रों को प्राप्त करने वाले अर्जुन की आँखों में मानसिक वेदना के कारण आँसू आ जाते हैं। इस महायुद्ध के पहले की घटनाएँ, कौरवों का पाण्डवों के साथ दुर्व्यवहार तथा जनता के साथ किए गये अन्याय आदि के कारण इस युद्ध की परिस्थिति उत्पन्न हुई है। इन परिस्थितियों के समाधान के लिए आरंभ होने वाले युद्ध के समय अर्जुन की दशा को देखकर भगवान उससे आगे कहते हैं।


श्रीभगवानुवाच

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।।2।।


श्
रीभगवान् बोले - हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देनेवाला है और न कीर्ति को करनेवाला ही है।।2।।

अर्जुन के वाक्यों को सुनने पर भगवान् सबसे पहले आश्चर्य से पूछते हैं कि अब जब युद्ध आरंभ होने को है, तब उस समय अचानक इस शोकाशोक का विचार उसे कैसे आया? भगवान अर्जुन के, उसकी युवावस्था से ही मित्र रहे हैं। इसी मित्रता के कारण वे उसके छत्रिय स्वभाव को भी भली-भाँति जानते हैं। भगवान् कृष्ण आश्चर्य कर रहे हैं कि अर्जुन के मन में इस समय ऐसा विचार कैसे आ सकता है! भगवान् कहते हैं कि आचार विचार में श्रेष्ठ पुरुष कदापि इस प्रकार का व्यवहार नहीं करते हैं। उदाहरण के रूप में, यदि हमें कोई अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य का शुभारंभ करना हो, कोई ऐसा कार्य, जिसमें हमें साधारण रूप से सफलता मिलना सुनिश्चित न हो, बल्कि इस कार्य में हमें अपने सम्मान अथवा जीवन हानि आदि की संभावना अधिक हो, तब उन परिस्थितियों में हमें अपने भविष्य के प्रति सहज शंका होती रहती है। साधारण मनुष्य तो बहुधा बिना सोचे विचारे कार्य आरंभ कर देते हैं, लेकिन श्रेष्ठ अथवा बुद्धिमानी पुरुष इस तरह का विचार कार्य आरंभ करने से पहले ही करते हैं, न कि कार्य प्रारंभ करने के पश्चात्।

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